उमाशंकर

#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 44
#बहने_हमारी_फ़ोरी_ता_हमहूनि_फ़ोरि_दइ...

#उमाशंकर हमारे भाइयों में लगते हैं । गाँव में हमारे घर के सामने ही इनका घर है । गाँव की #अवर्ण_जातियो में यदि सबसे अधिक किसी के घर जाना होता था तो वह #उमाशंकर_कुम्हार का ही घर हुआ करता था । इनकी बड़ी लड़की ‘रनियाँ’ हमारी हमजोली थी सो पीपल तले से लेकर हमारे और उसके घर हमारी गुड्डे-गुड़िए की शादी का खेल चलता रहता था । 

उमाशंकर का जीवन मेहनत-मज़दूरी भरा रहा । खेत-पात न होने के कारण वह किसी न किसी के खेत से लेकर बाद में घरेलू नौकर के रूप में भी काम करते रहे । वह हमारे बापू-चाचाओं से #चच्चा’ कहा करते थे तो हम सब उनसे ‘#उमाशंकर_दद्दा’ कहते थे । 

गाँव-गिराँव के लोग अक्सर कहा करते थे कि पूरे गाँव में ऐसा कोई और मज़दूर नहीं है जो उमाशंकर के बराबर काम कर सके । वह गाँव के सभी मज़दूरों से दो गुना काम करते थे । ... और इसी कारण पूरे गाँव तो गाँव आनगाँव तक के लोग उमाशंकर से काम करवाने के लिए उतावले रहते थे । एक की मज़दूरी में दो गुना काम पाकर कौन खुश न होगा । 

उमाशंकर की मज़दूरी के वक्त करीब-करीब एक शर्त भी होती थी । गाँव में उस समय मज़दूरी बहुत ही कम हुआ करती थी तो मज़दूरों को खेत पर काम के समय #शर्बत के साथ कुछ खाने को अवश्य दिया जाता था । कभी #सत्तू तो कभी #मोटी_मोटी_रोटियाँ और  #लहसुन_प्याज आदि की #चटनी भी । अधिक काम के साथ ही उमाशंकर की भूख भी अन्यों से दो गुनी ही हुआ करती थी । कई बार खेत पर मुझे भी शर्बत और अन्य खान-पान की चीजें लेकर जानी होती थीं । मैं अक्सर देखता था कि अन्य मज़दूरों के लिए दो-दो रोटियाँ और दो या तीन ग्लास शर्बत होता था तो उमाशंकर पाँच-छह रोटियाँ और आठ से दस ग्लास शर्बत सामान्य रूप से खा-पी जाया करते थे । मैंने बचपन में कई बार उमाशंकर को कहते देखा ‘#चच्चा_खेतप_ढ़ंगसि_सर्बतु_पानी_पठइअउ...’

उमाशंकर की पत्नी को हम सब #भौजी’ कहा करते थे । वह भी हमसे काफ़ी मेल मानती थीं । बाद में तो धीरे-धीरे उनकी मानसिक स्थित कम से कम होती चली गई । 

उमाशंकर के #एक_ही_आँख है । एक बचपन में फ़ूट गई थी । उनकी एक बहन भी हैं, जिनका नाम #पउवा’ था । उनकी भी एक आँख नहीं है । बहुत पहले ही हमने जिया से इसके बारे में पूछा था कि ‘दोनों भाई-बहन के एक-एक आँख क्यों नहीं है ।’ जिया ने जो बताया वह बड़ा ही बीभत्स था । जिया बताने लगीं कि ‘छोटे पर ये दोनों भाई-बहन तीर-कमान वाला खेल खेल रहे थे । इसी खेल के दौरान उमाशंकर का तीर उसकी बहन की आँख में ऐसा लगा कि वहीं की वहीं उसकी आँख चली गई । इस पर ‘पउवा’ को बड़ा क्रोध आया और वह टोकरी बुनने वाला एक ‘सूजा’ लेकर उसके पीछे दौड़ी । उस समय तो लोगों ने उमाशंकर को बचा लिया लेकिन रात में सोते समय ‘पउवा’ अपने भाई उमाशंकर की एक आँख फ़ोड़ दी । और इसी दिन से दोनों भाई-बहनों की एक-एक आँख चली गई ।’ 

उमाशंकर के पिता जी महात्मा थे । शरीर से एकदम काले । कुछ-कुछ हृदय से भी । तरह-तरह की #भोंड़ी_भोंड़ी’ गालियाँ उनके मुँह से झरने के समान सहज ही झरा करती थीं । लोग इन्हें #कल्लू_महात्मा’ कहते थे । इन्हें लेकर गाँव-गिराँव में तरह-तरह की कहानियाँ प्रचलित थीं जो रात की पोर का आलम्बन बना करती थीं ।  

कल्लू महात्मा युवावस्था से ही बैरागी हो गए थे । बैरागी मतलब घर-बार छोड़ने वाले नहीं बल्कि बाहर से ला-लाकर घर भरने वाले बैरागी । उनकी जजमानी बड़ी दूर-दूर तक थी । जब भी वह महीने-दो महीने में घर आते तो कई सारी गठरियाँ उनके पास होतीं थीं, जिन्हें लेने के लिए उमाशंकर अक्सर जाया करते थे या किसी और की मद्‍द से यह माल-असबाब घर तक पहुँचता था । किसी शिष्य से जब उनका यह कष्ट नहीं देखा गया तो उसने उन्हें एक साइकिल दिलवा दी थी, जिससे उन्हें काफी आराम हो गया था । शारदा के पार नेपाल तक, गंगा पार कटरी तक और तमाम सारे पंजाबियों के यहाँ इनका ढंका बजता था । सभी इनकी काबलियत और ज्योतिष के कद्रदान थे ।

एक बार किसी पंजाबी के घर पर महात्मा जी ठहरे हुए थे । पंजाबी के किसी दुश्मन ने उस पंजाबी पर हमला करने का विचार बना लिया था । कल्लू महात्मा बाहर की बैठक में अकेले काली चादर ओढ़े लेटे हुए थे । शत्रुओं ने ये सोचा न वो बस पिल पड़े । बल्लम-कांते से वो ‘वार’ किए कि महात्मा जी का राम नाम सत्य । अगले दिन जब पुलिस आई तो पाया गया कि महात्मा जी में अभी सांसे बाकी थीं । लेकिन काफी इलाज होने के बावजूद भी वह ठीक न हो सके और अपने अंतिम समय में पागल भी हो गए ।

इस स्थिति में उनके मुंह से धाराप्रवाह गालियाँ निकलने लगी थीं । जो भी सामने पड़ता उनकी गालियों का शिकार हो जाता था । यह क्रम करीब-करीब दो साल तक चलता रहा तब कहीं जाकर उन्हें इस स्थिति से छुटकारा मिला ।

अब उनका घर ही उनका एकमात्र सहारा था । न चल पाते थे न उठ पाते थे, चारपाई पर ही पड़े-पड़े सारे नित्यकर्म करते थे । उस स्थिति में उमाशंकर ने जो इनकी सेवा की, उससे उमाशंकर का कद पूरे गाँव में बढ़ गया था । 

कारण कुछ भी हो लेकिन अमारे घर से उमाशंकर का बड़ा लगाव रहा काफ़ी दिनों तक लेकिन राजनीतिक बदलाव ने इन्हें भी बदल दिया । आस-पड़ोस के लोगों ने उमाशंकर को हमारे घर के लोगों के खिलाफ़ कुछ समझा दिया और उमाशंकर ने उस दिन से रास्ता बदल लिया । चूँकि बाद में उन्हें इस बात का ऐहसास भी हुआ लेकिन फ़िर वह जुड़ाव न हो सका । 

उमाशंकर आज भी हैं गाँव में । लड़की रनिया और दुसरी लड़की की शादी हुए जमाना बीत गया है । लड़का बड़ा हो गया है और मेहनत-मज़दूरी करता है लेकिन उमाशंकर के चेहरी की प्रसन्नता और उत्साह अब वैसा न रहा । न मेरे घर के साथ वह लगाव बचा और न ही गाँव में भी किसी के साथ वैसा जुड़ाव ही । 

समय के बदलाव के साथ मज़दूरी के नियम भी बदल गए । मज़दूरी के रुपए बढ़ गए लेकिन जिस मोहब्बत के साथ खेत पर काम करने वालों को खिलाया-पिलाया जाता था, वह धीरे-धीरे समाप्त हो गया । उमाशंकर की ‘खुराक’ भी कम हो गई और साथ ही ‘मज़दूरी’ मिलनी भी । 

सुनील मानव
जगतपुर
21.05.2020

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