बद्री दद्दा

#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 32
#पहिलो_वीडियो_हमहीं_लाए_रहइं_गाउम ....

हमने जबसे होश संभाला तबसे #बद्री_दद्दा को ही अपने घर और स्वयं मेरे सबसे नज़दीक पाया । गाँव-गिराँव के अन्य लोगों से भी मैत्री संबंध रहे । नाते-रिश्ते रहे लेकिन बद्री दद्दा घर-परिवार का एक अटूट हिस्सा बन गए । वह घूम-फ़िरकर दिन भर में दो-चार बार हमारी ओर आ ही जाते रहे हैं । जिस दिन दद्दा नहीं आते ऐसा लगता कि घर का कोई सदस्य कहीं बाहर गया है । रह-रह कर उनकी घर की ओर से आने वाले रास्ते की ओर आँखें चली जातीं । आज भी, इतने वर्षों के बाद भी यह क्रम अनवरत जारी है । कुछ सामाजिक परिवर्तनों के बावजूद भी बद्री दद्दा मेरी गाँव में उपस्थिति जानकर शाम को आ ही जाते हैं । 
 
गाँव में लोग अक्सर कहा करते थे कि बद्री गाँव के चलते-फ़िरते मनोरंजन का केंद्र हैं । जहाँ से वह गुजरते चुहलबाजी करते ही निकलते । जिस स्थान पर खड़े हो जाते, लोग स्वयं ही उनके पास खिंचे चले आते थे और वातावरण आनंद से भर जाता था । गाँव के कुछ झूठी मर्यादा का मुलम्मा चढ़ाए हुए सवर्ण लोग उन्हें कई बार नकारात्मक रूप में भी देखते और उनके लिए तरह-तरह की बात करते लेकिन मैंने उनके अंदर अपने लिए केवल और केवल स्नेह ही देखा है । आज भी दद्दा कहने लगते हैं कभी-कभी कि ‘तुम्हें तो मैंने इत्ते छोटे से खिलाया है’ और हाथ के इशारे से छोटी अवस्था का प्रतीक बनाते । अभी कुछ दिन पहले ही ‘शब्द’ ने उनके ऊपर ‘पेशाब’ कर दी तो दद्दा प्रसन्नता से चूर हो गए । बोले ‘बापउनि मूतो ता लल्लानि मूति लो त का भओ...’

 बद्री दद्दा को मैंने हमेशा उत्साह से भरा ही पाया । जब भी घर आते उनके पास एक कहानी, एक समाचार होता, जो वह बड़े ही रस ले-लेकर सुनाते । सच कहूँ तो उनकी ‘कथा’ शैली से मैंने कहानी लेखन में ‘बिंब-चित्रण’ को समझा है । सामान्य सी सामास्य घटना को वह ‘स्पेशल’ बनाकर ऐसे प्रस्तुत कर देते कि सुनने वाले की आँखों के सम्मुख बिंब सजीव हो उठता है । उनकी यह कला मेरे लेखन का कब हिस्सा बन गई, आज जाकर कुछ-कुछ समझ पा रहा हूँ । 

 उनके पास दुनिया भर की कहानियाँ होती थीं । दुनिया भर की बाते होती थीं । ... और दुनिया-जहान को उनका प्रस्तुतिकरण उन्हें गाँव तो गाँव आनगाँव तक में सबसे अलग स्थान देता रहा है । दद्दा बताया करते थे कि किस प्रकार वह गाँव में चलवाने के लिए पहली बार बीस किलो मीटर दूर मैलानी से बैलगाड़ी पर आज से पच्चीस-तीस साल पहले वीडियो लाए थे । उनकी आँखें चमक उठती हैं ? चेहरे पर अविस्कारक-सा गर्व दीप्त हो उठता है । कुछ-कुछ बूढ़े हो चुके उनके चेहरे पर नौजवानों सा उत्साह चमक उठता है ।

 पिछले दस-बारह वर्षों की राजनैतिक परिस्थितियों ने ग्राम्य संबंधों भी ग्रहण लगा दिया है । अब आपस में पहले वाला लगाव न रहा । न वह चुहलबाजी रही और न ही आपसी स्नेह । बद्री दद्दा के उत्साह और यौवन को दो बातों ने समाप्त कर दिया । एक गरीबी और उससे कहीं बढ़कर उसके बिगडैल एकमात्र लड़के की हरकतों ने ।

 दो लड़कियों की पीठ पर जब यह लड़का बद्री दद्दा के घर हुआ तो वह इतना प्रसन्न हुए कि पूछो मत । ऐसा लग रहा था कि सब कुछ लुटाकर अपने उल्लास में पूरे गाँव को रंग डालना चाह रहे थे । वीडियों चलवाने के साथ ही दावत-पानी । साथियों के बीच शराब भी । लड़के लिए सब कुछ ला देना चाहते थे लेकिन लड़का जैसे-जैसे बड़ा हुआ, गाँव के लोगों के भड़काने में आकर पिता की उपेक्षा कर बैठा । उसने कसम खा ली कि ‘जब तक उसके बाप यानि कि बद्री मरते नहीं हैं, तब तक कुछ न करेगा ।’ बस बद्री के उत्साह पर जैसे ग्रहण लग गया । 

 नौजवान लड़के का घर पर पड़े-पड़े खाना और ऊपर से उसकी हनक सुनना, बद्री के लिए असहाय होता चला गया । कई बार तो उनके लड़के ने घर के सामनों को तक तोड़-फ़ोड़ डाला । कई बार गाँव-गिराँव के झगड़ों के चलते जेल तक पहुँच गया । दद्दा पुत्र मोह में फ़ँसे उसकी जमानत करवा लाते हैं । 

 अभी पिछली ही साल की बात है । एक दिन दद्दा घर आए । सुबह का ही समय था । हम सब चाय-नाश्ता कर रहे थे । दद्दा को भी दिया गया । दद्दा न जाने किस स्मृति में खो गए और रोने लगे । मेरे लिए अपने जीवन का सबसे कठिन समय था यह । मैंने उनकी आँखों में केवल उत्साह ही देखा था लेकिन आज वही आँखें उत्साह से विहीन आँसू टपका रही थीं । न जाने कितनी बातें कह गए, सुना गए । हम चुपचाप बैठे सुनते रहे । उनकी परिस्थिति को निहारते रहे । 

 यकायक शांत हो गए । आँसू पोछ डाले । बोलने लगे कि ‘इस लड़के के लिए मैं गन्ना बेचकर साइकिल लाया था सो आज वही मुझे दर-दर की ठोकरे खाने के लिए मज़बूर कर रहा है । सब ज़मीन बेच दूँगा और चैन से रहूँगा ...’ और भी न जाने क्या-क्या ... । 

 मुझे खूब याद है कि दद्दा के यहाँ एक किराने की दुकान हुआ करती थी जिस पर मैं दिन भरमें कई-कई बार पहुँच जाया करता था । भाभी खूब मज़ाक किया करती थीं । आज उनकी हालत देखकर तरस आता है । घर में नैजवान लड़का बैठा-बैठा मोबाइल चलाता रहता है और उस पर जान छिड़कने वाले यह माँ-बाप अपने जीवन के अंतिम दिनों की आस लगाए रहते हैं । 

 जीवन में इतना दुख होने के बावजूद भी बद्री दद्दा में गजब की जीवटता है । आज भी जब मैं गाँव में होता हूँ तो शाम को आ ही जाते हैं । न जाने कब-कब की बातें अपनी चिर-परिचित चुहलवाजी और कथ्य-शैली में सुनाते रहते हैं । इसके बावजूद भी मैं उनके अंदर एक असहाय बाप और थका हुआ सिपाही देख लेता हूँ, जो किसी प्रकार से अपने आपको संभालने का प्रयास करता रहता है । 

सुनील मानव, 03.05.2020

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