साहब


हां साहब ! मैं मजदूर हूं। 

जी सही सुना आपने
मैं मजदूर ही हूँ ...
जिस महल में तुम रहते हो ? 
मेरे ही हाथों ने गढ़ा है उसे  
महल के ईंट गारे पत्थर से लेकर
उसकी साज-सज्जा तक पर
मेरे ही पसीने की छींटे दिखते हैं 
जिसे तुम नक्काशी कहकर
कर उठते हो 'वाह-वाह'
लेकिन उस 'वाह-वाह' के नीचे सिसकती 
मेरी आह को देखकर भी 
अनदेखा करते आए हो हमेशा से ... 

साहब ! 
तुम्हें अपने महलों की नक्काशी की जड़ों से 
जो मेरे चिपचिपाते हुए पसीने की बदबू से 
घिन आती है 
हां साहब ! मैं वही बदबू हूँ
जिसे तुम खूबसूरत शहरों पर लगा 
बदनुमा दाग समझ 
छुड़ाने का प्रयास कर रहे हो । 

साहब ! 
आपको और आपके रहन-सहन तक को 
मेरे ही श्रम ने गढ़ा है 
तुम्हारे अय्याशी के सामानों तक पर भी 
हमारे ही खून के छींटे हैं 
मदमस्त होकर 
नशे में धुत होकर 
चल रही तुम्हारी गाड़ियों के नीचे 
हमने ही अपने को बिछाया है 

हां साहब ! 
मैं तुम्हारे खूबसूरत फुटपाथों पर सोया 
वही मज़दूर हूँ
जिसे तुम 
खुरच-खुरचकर साफ कर रहे हो
अपने शहरों से । 

हाँ साहब ! 
मैं मज़दूर हूँ 
और इसीलिए मजबूर भी हूं 
क्योंकि मैं अपने सपनों के फेर में 
केवल तुम्हारे शहर की 
जो कभी मेरा न हो सका,
चमचमाती हुई आबोहवा को ही 
गढ़ता रहा उम्र भर । 

साहब! 
आज इस संकट के दौर में
जबकि हमें तुम्हारी सबसे अधिक जरूरत थी
आपने मेरी निगाहें खोल
मेरे झूठे सपनों को हकीकत का
आईना दिखा दिया । 
मैं शहर का बुनकर बनने के बावजूद भी
अपने अधूरे सपनों को
अपनी ही गोद में 
सिसकता हुए लेकर 
मजबूर हो गया वापस लौटने को । 

साहब ! 
तुम्हारी दुत्कार और 'समझाइस' सुनने के बाद मजबूर होकर 
जा रहा हूं 
तुम्हारे इस खूबसूरत शहर को 
पाकीजा बने रहने हेतु छोड़कर अपने गांव 
जहां से मैं एक सपना लेकर चला था 
अपने श्रम के सौंदर्य के फानूस
शहरों की नीरस दीवारों में टांकने
लेकिन साहब 
आज उन्हीं फांनूसो को टांकने के बाद 
जबकि हो गया है मेरा दामन 
बिलकुल खाली 
आज अभिशप्त होकर 
वापस भेजा जा रहा हूँ 
अपने गाँव ... 

साहब ! 
मैं आज प्रसन्न भी हूँ
मुझे ये सजा मिलनी ही चाहिए थी 
क्योंकि 
गाँव छोड़ते वक्त
वह भी रोया था 
आज मेरे रोने की तरह 
फफक-फफक कर 
उसका दामन बेहयाई से छोड़ते वक्त ।

साहब ! 
एक विनती है आपसे 
मेरी लाज रख लेना 
मेरे गांव को यह कभी मत बताना 
कि मैं अपने सपनों को पूरा नहीं कर पाया 
जो लेकर आया था शहर !

साहब !
हँसेंगे लोग मुझ पर
और उससे भी ज्यादा 
उदास होंगी कुछ आँखे
मुझे खाली हाथ
इस तरह ठुकराया हुआ
वापस आया जानकर 

हां साहब ! 
मैं उनको यही बताऊंगा कि मुझे शहर ने 
धक्का नहीं दिया है 
मैं स्वयं वापस आया हूं 

हां साहब ! इतनी सी लाज रख लेना मेरी। 

सुनील मानव, 17.05.2020

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