नकटा तालाब और बरमबाबा महराज

#जानिए_मेरे_गाँव_जगतियापुर_को : 37
#जय_बरमबाबा_महराज ...

#कक्षा_नौ के बाद तो गाँव से संबंध करीब-करीब कटने सा लगा था । लखीमपुर और उसके बाद शाहजहाँपुर जाने के बाद तो जैसे गाँव कुछ समय के लिए हृदय के किसी कोने में छिपकर सुस्ताने लगा था । एक बार, संभवत: एम.ए. हो चुका था, घर आना हुआ । कोई सवारी न मिल पाने के कारण #जोगराजपुर से पैदल ही चल घर की ओर चल दिया । जोगराजपुर और गाँव के बीच में मेरी तमाम सारी यादें बिखरी थीं । इस रास्ते पर आते ही मानो उनका संकोच समाप्त हो गया और सब उठ बैठीं । यकायक बचपन अपनी पूरी ‘रौ’ के साथ आँखों में खिलखिलाने लगा । ऐसा लगा कि सिनेमा की रील-सी चलने लगी हो आँखों के सामने । 

मैं घर की ओर लाइन के किनारे-किनारे चला जा रहा था । एक-एक कर इस राह से जुड़े सारे स्थान मुझसे बातें करने को, हाय-हैलो करने को आतुर दिखने लगे । 

#बिलबुझिया के बाद, जहाँ से #बबरौआ के लिए रास्ता मुड़ता है, वहाँ के #बरमबाबा_महराज’ हम दोस्तों की मौज-मस्ती के सबसे बड़े गवाह हुआ करते थे । घर से जब हम लोग पढ़ने के लिए जाते थे तो हमें सिखाया जाता था कि #बरमबाबा_महराज’ के हाथ जोड़कर ही आगे जाना और उनसे ‘अच्छे रहने’ की प्रार्थना करना । जैसे ही हम मित्रों की टोली #बरमबाबा_महराज’ के पास से गुजरती एक साथ चिल्ला पड़ती थी – #बरमबाबा_महराज_की_जय”

और फिर एक-एक करके सब प्रार्थना करते – “जय बरमबाबा महराज, नीके–नीके जाइं, नीके–नीके आबइं....... बीस आनाकु पस्सादु चढ़हई आइकि.........” लेकिन यह रोज माना गया प्रसाद कोई कभी नहीं चढ़ाता था ।

स्कूल से वापस आते वक्त सभी मित्र ‘बरमबाबा महराज’ के नीचे काफी देर आराम करते थे । गरमी बहुत होती थी और बरमबाबा महराज हम मित्रों पर पंखा चलाते हुए हवा किया करते थे । कई मित्र कुछ देर सो लेते थे और कुछ तो बरमबाबा महराज के कंधों पर चढ़कर उन्हें दोपहर में सोने नहीं देते थे । कई बार बरमबाबा महराज ज्यादा शैतानी करने पर कंधे से गिरा भी देते थे, लेकिन वह हम सबको प्यार भी बहुत किया करते थे । स्कूल से लौटते वक्त हम सब मित्रों का चेहरा जब गर्मी और धूप से लाल पड़ जाता तो बरमबाबा हम सबको देखते ही अपने पत्ते हिलाहिलाकर जोर-जोर से अपने पास बुला लेते थे । वह बड़े प्यार से हम सबका पसीना पोंछते और हम पर हवा ठंडी हवा करते थे ।

आज यह बरमबाबा महराज नहीं रहे । सबकी तरह यह भी बूढ़े हुए तो आँधी की चपेट में आ गए । बरमबाबा महराज तो आज नहीं हैं लेकिन अपने बेटे को छोड़ गए है, पर अब हम सबके जैसी मित्र मण्डली उधर से नहीं गुजरती है ।

बरमबाबा से कुछ आगे चलने पर #नकटा तालाब’ पड़ता था । गाँव के बड़े-बूढ़े लोग कहते हैं कि किसी व्यक्ति ने अपनी पत्नी की नाक इस जगह पर काट ली थी । इसलिए उस दिन से इस तालाब का नाम #नकटा_तालाब’ पड़ गया । नकटा तालाब के दूसरी ओर नीरज के खेतों के पास शीशम के तीन-चार पेड़ थे । ज्यादा धूप होने पर हम लोग अक्सर वहाँ भी कुछ देर रुकते थे । वैसे यहाँ रुकने का एक विशेष कारण भी था और वह कारण था शीशम के पेड़ों पर हम मित्रों का #लपचू_डण्डा’ खेलना ।

इसके बाद आती थी अर्जुन सिंह की बगिया । बगिया मेरे यहाँ भी थी लेकिन यहाँ आम के सीजन मे एक रखबाला रहता था । इसको चिढ़ाने के लिए हम सब इस बगिया से छोटी-छोटी अमियां जरूर तोड़ते थे । जब वह रखवाल हम सबको भगाता तो सब हँसते और उसे चिढ़ाते हुए भगते थे ।

हम जैसे-जैसे मशीन बनते गए । यह सब समाप्त होता गया । अब गाँव और क्षेत्र के लोगों की राह बदल गई है । नहर किनारे की बन गई सड़क ने सबको अपनी ओर आकर्षित कर लिया है । अब न वह उत्साह रहा और न वह नकट तालाब, बरमबाबा महराज आदि के साथ लगाव ही । ... और न ही वह रिश्तों की मज़बूत डोर ही ! 

वास्तव में #अब_सब_कुछ_समाप्त_हो_गया_है ।

सुनील मानव
14.05.2020

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