काकड़ीघाट : पर्वतों की गोद में रचनात्मकता और आत्मीयता की यात्रा

उत्तराखंड के सुरम्य पहाड़ों के बीच, अल्मोड़ा जिले की सीमाओं पर स्थित एक छोटा सा गाँव काकड़ीघाट । यहाँ की शांत वादियों और प्रवाहित नदियों के साथ स्वामी विवेकानंद का ध्यान स्थल, मानो इस जगह को एक आध्यात्मिक शक्ति से जोड़ता है । स्थानीय लोगों का मानना है कि विवेकानंद जी ने इस स्थान पर आकार कुछ समय ध्यान किया था । इस आस्था के चलते दूर-दूर से उनके अनुयायी विवेकानंद जी के एहसास को महसूस करने भी यहाँ आते हैं । तो इसी काकड़ीघाट में हमने एक अनोखी यात्रा का अनुभव किया । यह यात्रा केवल स्थल भ्रमण नहीं थी, बल्कि रचनात्मकता, आत्मीयता और शिक्षा के क्षेत्र में नवीन दृष्टिकोण को बल देने का प्रयास भी थी ।
हम कुछ मित्रों – रविपाल, राजकुमार, सैफ असलम, विकास, मोहित और मैं – ने इस यात्रा का प्लान किया और हमारे आमंत्रण पर मित्र महेश पुनेठा जी भी पिथौरागढ़ से काँकड़ी आकार हमारी यात्रा के साथी बने । यहाँ तक कि हमारे अनुरोध पर उन्होंने ही इस यात्रा का नेतृत्व भी किया । आपकी उपस्थिति ने हमारे बीच अनेकानेक विषयों को सार्थक चर्चाओं का माध्यम बनाया । आपकी ‘झोला पुस्तकालय’ की पहल ने हम सबको बहुत प्रभावित किया । उनकी इस बात ने हमें आकर्षित किया और प्रेरणा भी दी कि वह इस पुस्तकालय को लेकर गाँव-गाँव बच्चों के बीच जाते हैं और इस पुस्तकालय का नेतृत्व बच्चों को प्रदान करते हैं । आपका मानना है कि ‘बच्चे मोबाइल आदि से थोड़ी दूरी बनाकर पढ़ने की संस्कृति का हिस्सा बनें ।’ आपकी मुहिम का यह उद्देश्य वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में बदलाव की आवश्यकता पर गहरी आस्था प्रकट करता है । 
वास्तव में महेश जी की "झोला पुस्तकालय" की पहल पहाड़ों से लेकर दूर-दूर के गाँवों, कस्बे और शहरों में पुस्तक प्रेम को पुनर्जीवित कर रही है। बच्चों में पढ़ने की रुचि जगाने के लिए उनका यह प्रयास अद्भुत है । इस यात्रा के दौरान हमें भी उनके साथ शिक्षा के प्रति उनके समर्पण को और करीब से देखने का मौका मिला । उनका झोला हर जगह के लोगों को ज्ञान से समृद्ध कर रहा था ।
हमारी यात्रा का विशेष आकर्षण था, काकड़ीघाट में आयोजित बाल रचनात्मक कार्यशाला । हम मित्रों ने इस कार्यशाला के तहत गाँव के बच्चों के जीवन में रचनात्मकता की एक नई किरण जगाने का कार्य किया था । बच्चों को खेल-खेल में कविताएँ सिखाना, कहानियों को सुनाना और उन्हें स्वतंत्र रूप से अपनी कला व्यक्त करने का मौका देना, इस कार्यशाला की मुख्य विशेषता थी । कार्यशाला में इलेस्ट्रेटर सैफ असलम बच्चों के बीच अपने खास अंदाज में शामिल रहे । उनकी संवेदनशीलता और बालमन की समझ ने बच्चों को उत्साह से भर दिया । सैफ असलम ने बच्चों को पूरी स्वतंत्रता दी कि वे जो चाहें बनाएं, जहाँ चाहें बैठें । हर फूलों की तरह बिखरे बच्चों के स्केच इस यात्रा की विशेष उपलब्धि रही । हमने शाम को चर्चा में स्वीकारा कि ‘वास्तव में कला वही है जो अंदर से निकले और दिल को सुकून दे ।’ सैफ ने बच्चों को अपनी कला को स्वतंत्रता से व्यक्त करने का संदेश दिया । बच्चों को बताया गया कि कला में कोई सीमाएं नहीं होतीं । उनकी बनाई हुई टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें ही वास्तविकता की छवि होती हैं । बच्चों ने इस कार्यशाला में पूरी तन्मयता से भाग लिया, मानो वे पहले से ही इस अवसर का इंतजार कर रहे थे । सैफ भाई का बच्चों के प्रति समर्पण और उनकी संवेदनशीलता ने बच्चों के साथ-साथ हमें भी प्रभावित किया ।
काकड़ीघाट का शांत वातावरण, वहाँ के लोगों की सरलता और आत्मीयता हमें वहां से अलग होने नहीं दे रही थी । खासकर, वहाँ की छोटी-छोटी चाय की दुकानों में बैठकर लोगों से बातें करना, सैफ भाई के लिए यह बहुत खास था । उन्होंने 'सागर फ़ास्ट फ़ूड' नामक चाय की दुकान पर बैठकर, चाय के साथ वहां के लोगों की कहानियों को अपनी स्केचबुक में कैद किया । यह दुकान, जिसे खड़कसिंह जी चलाते थे, हमारी यात्रा का एक यादगार हिस्सा बन गई ।
यात्रा के दौरान हमें पहाड़ी व्यंजनों का स्वाद अविस्मरणीय था । सीमा द्वारा बनाई गई कचौड़ियों का स्वाद अब भी सबकी जीभ पर ताजा है, जिसकी चर्चा अक्सर हमारे बीच होती रहती है । सीमा भले ही हमारे साथ न थीं लेकिन कचौड़ियों के माध्यम से उनकी उपस्थिति पूरी यात्रा के दौरान बनी रही । कचौड़ी, जिसमें भुजिया नमकीन भरकर बनाई गई थी, हमारी भूख और इस व्यंजन की विशेषता ने हमें इसका दीवाना बना दिया था ।
रविपाल और मोहित यहाँ पहले भी आते रहे हैं तो उनकी जजमानी-सी थी इस जगह के साथ । दीपक जैसे सह-यात्री और मार्गदर्शक से मित्रता, इसी भावना की परिचायक थी । इनके साथ ने इस थान को अपना सा बना दिया था । दीपक ने पूरी यात्रा में हमारा मार्गदर्शन किया । हम इस परिवेश में जो भी देखा सके, दीपक उसके सूत्रधार रहे । 
रवि भाई भौगोलिक विषयों के अच्छे जानकार हैं लेकिन उनका मन कई बार एकाग्रता के बंधनों से मुक्त हो जाता है । वह अपनी मूल भावना से भटककर हर भाव में अनायास ही प्रवेश कर जाते हैं । संभवत: इसी कारण हम काकड़ीघाट के भौगोलिक अध्ययन को उतना स्पेस नहीं दे सके । 
यात्रा के दौरान पड़ाव स्थलों पर हम अक्सर कविताएं पढ़ने, सुनने का प्रयास करते । हालाँकि श्री रजनीकान्त जी की वर्तमान खोखले कवियों पर की गई व्यंग्यात्मक टिप्पणियों ने हमें काफी हद तक डराया भी, जिसके चलते महेश जी कविताएं सुनाने से पीछे ही भागते रहे, बावजूद इसके यह सब रोचक था । विकास भारती भाई की तुकबंदियों ने जो आनंद दिया, सच कहूँ स्वादिष्ट भोजन-सा आनंद था उनमें । यात्रा की सारी थकान विकास भाई की तुकबंदियों, फोटोग्राफी ने दूर कर दी थी । 
काकड़ीघाट के देवदार के वृक्षों और ठंडी हवाओं के बीच, कोसी नदी की शीतलता को महसूस करते हुए, इस यात्रा ने हमें न केवल प्रकृति की सुंदरता से बल्कि उस पवित्र स्थान की आत्मीय गहराई से भी रूबरू कराया । यहाँ की सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहर को समझते हुए हमारा मन कहीं खो सा गया था । 
हमारी यह यात्रा न केवल एक पर्यटन यात्रा थी, बल्कि आत्मीयता, शिक्षा और रचनात्मकता के नए आयामों को छूने का प्रयास थी । यह जगह हमें अपनी जड़ों से जुड़ने और अपने भीतर की शांति को खोजने की प्रेरणा देती महसूस हुई । इस यात्रा ने हमें यह सिखाया कि बच्चों के मन को समझने और उनके साथ समय बिताने से बेहतर कोई अनुभव नहीं हो सकता है ।
अल्मोड़ा अपनी ऐतिहासिक धरोहरों और आध्यात्मिक महत्व के साथ जीवंत रूप में हमारे साथ था । स्थानीय लोगों के अनुसार ‘कसार देवी, स्याही देवी, और जाखन देवी के आशीर्वाद तले बसा यह शहर’ हमें बार-बार आमंत्रित कर रहा है । काकड़ीघाट का वटवृक्ष, जहाँ विवेकानंद जी ने ध्यान किया था, आज अपने नवीन रूप में खड़ा है, जैसे कि वह हमारी आत्मा को बुलाया रहा हो कि ‘आओ, कुछ पल वापस यहाँ बिताओ । एक अलग अहसास का अनुभव कराऊँगा । आओ, इस पवित्र स्थल की शांति में खुद को समाहित कर जाओ ।’  
यह यात्रा एक यादगार संस्मरण के रूप में हमारे दिलों में सदा के लिए बस गई । हम एक साथ महसूस कर रहे थे कि ‘जीवन की इस भाग-दौड़ में कभी-कभी हमें ठहरकर ऐसे स्थलों की शरण लेनी चाहिए, जहाँ न केवल हम प्रकृति के करीब आ सकें बल्कि आपनी आत्मा को शांति दे सकें ।’ 
काकड़ीघाट : पर्वतों की गोद में रचनात्मकता और आत्मीयता की यात्रा

उत्तराखंड के सुरम्य पहाड़ों के बीच, अल्मोड़ा जिले की सीमाओं पर स्थित एक छोटा सा गाँव काकड़ीघाट । यहाँ की शांत वादियों और प्रवाहित नदियों के साथ स्वामी विवेकानंद का ध्यान स्थल, मानो इस जगह को एक आध्यात्मिक शक्ति से जोड़ता है । स्थानीय लोगों का मानना है कि विवेकानंद जी ने इस स्थान पर आकार कुछ समय ध्यान किया था । इस आस्था के चलते दूर-दूर से उनके अनुयायी विवेकानंद जी के एहसास को महसूस करने भी यहाँ आते हैं । तो इसी काकड़ीघाट में हमने एक अनोखी यात्रा का अनुभव किया । यह यात्रा केवल स्थल भ्रमण नहीं थी, बल्कि रचनात्मकता, आत्मीयता और शिक्षा के क्षेत्र में नवीन दृष्टिकोण को बल देने का प्रयास भी थी ।
हम कुछ मित्रों – रविपाल, राजकुमार, सैफ असलम, विकास, मोहित और मैं – ने इस यात्रा का प्लान किया और हमारे आमंत्रण पर मित्र महेश पुनेठा जी भी पिथौरागढ़ से काँकड़ी आकार हमारी यात्रा के साथी बने । यहाँ तक कि हमारे अनुरोध पर उन्होंने ही इस यात्रा का नेतृत्व भी किया । आपकी उपस्थिति ने हमारे बीच अनेकानेक विषयों को सार्थक चर्चाओं का माध्यम बनाया । आपकी ‘झोला पुस्तकालय’ की पहल ने हम सबको बहुत प्रभावित किया । उनकी इस बात ने हमें आकर्षित किया और प्रेरणा भी दी कि वह इस पुस्तकालय को लेकर गाँव-गाँव बच्चों के बीच जाते हैं और इस पुस्तकालय का नेतृत्व बच्चों को प्रदान करते हैं । आपका मानना है कि ‘बच्चे मोबाइल आदि से थोड़ी दूरी बनाकर पढ़ने की संस्कृति का हिस्सा बनें ।’ आपकी मुहिम का यह उद्देश्य वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में बदलाव की आवश्यकता पर गहरी आस्था प्रकट करता है । 
वास्तव में महेश जी की "झोला पुस्तकालय" की पहल पहाड़ों से लेकर दूर-दूर के गाँवों, कस्बे और शहरों में पुस्तक प्रेम को पुनर्जीवित कर रही है। बच्चों में पढ़ने की रुचि जगाने के लिए उनका यह प्रयास अद्भुत है । इस यात्रा के दौरान हमें भी उनके साथ शिक्षा के प्रति उनके समर्पण को और करीब से देखने का मौका मिला । उनका झोला हर जगह के लोगों को ज्ञान से समृद्ध कर रहा था ।
हमारी यात्रा का विशेष आकर्षण था, काकड़ीघाट में आयोजित बाल रचनात्मक कार्यशाला । हम मित्रों ने इस कार्यशाला के तहत गाँव के बच्चों के जीवन में रचनात्मकता की एक नई किरण जगाने का कार्य किया था । बच्चों को खेल-खेल में कविताएँ सिखाना, कहानियों को सुनाना और उन्हें स्वतंत्र रूप से अपनी कला व्यक्त करने का मौका देना, इस कार्यशाला की मुख्य विशेषता थी । कार्यशाला में इलेस्ट्रेटर सैफ असलम बच्चों के बीच अपने खास अंदाज में शामिल रहे । उनकी संवेदनशीलता और बालमन की समझ ने बच्चों को उत्साह से भर दिया । सैफ असलम ने बच्चों को पूरी स्वतंत्रता दी कि वे जो चाहें बनाएं, जहाँ चाहें बैठें । हर फूलों की तरह बिखरे बच्चों के स्केच इस यात्रा की विशेष उपलब्धि रही । हमने शाम को चर्चा में स्वीकारा कि ‘वास्तव में कला वही है जो अंदर से निकले और दिल को सुकून दे ।’ सैफ ने बच्चों को अपनी कला को स्वतंत्रता से व्यक्त करने का संदेश दिया । बच्चों को बताया गया कि कला में कोई सीमाएं नहीं होतीं । उनकी बनाई हुई टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें ही वास्तविकता की छवि होती हैं । बच्चों ने इस कार्यशाला में पूरी तन्मयता से भाग लिया, मानो वे पहले से ही इस अवसर का इंतजार कर रहे थे । सैफ भाई का बच्चों के प्रति समर्पण और उनकी संवेदनशीलता ने बच्चों के साथ-साथ हमें भी प्रभावित किया ।
काकड़ीघाट का शांत वातावरण, वहाँ के लोगों की सरलता और आत्मीयता हमें वहां से अलग होने नहीं दे रही थी । खासकर, वहाँ की छोटी-छोटी चाय की दुकानों में बैठकर लोगों से बातें करना, सैफ भाई के लिए यह बहुत खास था । उन्होंने 'सागर फ़ास्ट फ़ूड' नामक चाय की दुकान पर बैठकर, चाय के साथ वहां के लोगों की कहानियों को अपनी स्केचबुक में कैद किया । यह दुकान, जिसे खड़कसिंह जी चलाते थे, हमारी यात्रा का एक यादगार हिस्सा बन गई ।
यात्रा के दौरान हमें पहाड़ी व्यंजनों का स्वाद अविस्मरणीय था । सीमा द्वारा बनाई गई कचौड़ियों का स्वाद अब भी सबकी जीभ पर ताजा है, जिसकी चर्चा अक्सर हमारे बीच होती रहती है । सीमा भले ही हमारे साथ न थीं लेकिन कचौड़ियों के माध्यम से उनकी उपस्थिति पूरी यात्रा के दौरान बनी रही । कचौड़ी, जिसमें भुजिया नमकीन भरकर बनाई गई थी, हमारी भूख और इस व्यंजन की विशेषता ने हमें इसका दीवाना बना दिया था ।
रविपाल और मोहित यहाँ पहले भी आते रहे हैं तो उनकी जजमानी-सी थी इस जगह के साथ । दीपक जैसे सह-यात्री और मार्गदर्शक से मित्रता, इसी भावना की परिचायक थी । इनके साथ ने इस थान को अपना सा बना दिया था । दीपक ने पूरी यात्रा में हमारा मार्गदर्शन किया । हम इस परिवेश में जो भी देखा सके, दीपक उसके सूत्रधार रहे । 
रवि भाई भौगोलिक विषयों के अच्छे जानकार हैं लेकिन उनका मन कई बार एकाग्रता के बंधनों से मुक्त हो जाता है । वह अपनी मूल भावना से भटककर हर भाव में अनायास ही प्रवेश कर जाते हैं । संभवत: इसी कारण हम काकड़ीघाट के भौगोलिक अध्ययन को उतना स्पेस नहीं दे सके । 
यात्रा के दौरान पड़ाव स्थलों पर हम अक्सर कविताएं पढ़ने, सुनने का प्रयास करते । हालाँकि श्री रजनीकान्त जी की वर्तमान खोखले कवियों पर की गई व्यंग्यात्मक टिप्पणियों ने हमें काफी हद तक डराया भी, जिसके चलते महेश जी कविताएं सुनाने से पीछे ही भागते रहे, बावजूद इसके यह सब रोचक था । विकास भारती भाई की तुकबंदियों ने जो आनंद दिया, सच कहूँ स्वादिष्ट भोजन-सा आनंद था उनमें । यात्रा की सारी थकान विकास भाई की तुकबंदियों, फोटोग्राफी ने दूर कर दी थी । 
काकड़ीघाट के देवदार के वृक्षों और ठंडी हवाओं के बीच, कोसी नदी की शीतलता को महसूस करते हुए, इस यात्रा ने हमें न केवल प्रकृति की सुंदरता से बल्कि उस पवित्र स्थान की आत्मीय गहराई से भी रूबरू कराया । यहाँ की सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहर को समझते हुए हमारा मन कहीं खो सा गया था । 
हमारी यह यात्रा न केवल एक पर्यटन यात्रा थी, बल्कि आत्मीयता, शिक्षा और रचनात्मकता के नए आयामों को छूने का प्रयास थी । यह जगह हमें अपनी जड़ों से जुड़ने और अपने भीतर की शांति को खोजने की प्रेरणा देती महसूस हुई । इस यात्रा ने हमें यह सिखाया कि बच्चों के मन को समझने और उनके साथ समय बिताने से बेहतर कोई अनुभव नहीं हो सकता है ।
अल्मोड़ा अपनी ऐतिहासिक धरोहरों और आध्यात्मिक महत्व के साथ जीवंत रूप में हमारे साथ था । स्थानीय लोगों के अनुसार ‘कसार देवी, स्याही देवी, और जाखन देवी के आशीर्वाद तले बसा यह शहर’ हमें बार-बार आमंत्रित कर रहा है । काकड़ीघाट का वटवृक्ष, जहाँ विवेकानंद जी ने ध्यान किया था, आज अपने नवीन रूप में खड़ा है, जैसे कि वह हमारी आत्मा को बुलाया रहा हो कि ‘आओ, कुछ पल वापस यहाँ बिताओ । एक अलग अहसास का अनुभव कराऊँगा । आओ, इस पवित्र स्थल की शांति में खुद को समाहित कर जाओ ।’  
यह यात्रा एक यादगार संस्मरण के रूप में हमारे दिलों में सदा के लिए बस गई । हम एक साथ महसूस कर रहे थे कि ‘जीवन की इस भाग-दौड़ में कभी-कभी हमें ठहरकर ऐसे स्थलों की शरण लेनी चाहिए, जहाँ न केवल हम प्रकृति के करीब आ सकें बल्कि आपनी आत्मा को शांति दे सकें ।’

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पुस्तक : भुवनेश्वर व्यक्तित्व एवं कृतित्व संपादक : राजकुमार शर्मा विधा : संग्रह एवं विमर्श प्रकाशन : उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ प्रथम संस्करण : सन् 1992 मूल्य : रु.90 (हार्ड बाउंड)