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भंवरा बड़ा नादान हो ...

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भंवरा एक छोटा लेकिन शक्तिशाली कीट है, जिसकी पहचान उसकी काली-पीली धारियों से की जाती है। यह मधुमक्खी की तरह दिखता है, परंतु इसका स्वभाव अलग है। भंवरे की सबसे बड़ी आदत फूलों का रस चूसना है, जिससे यह पौधों के परागण में मदद करता है। यह दिन में सक्रिय होता है और मीठी खुशबू की ओर आकर्षित होता है। अपनी पंखों की तेज़ी से कंपन करने की क्षमता से यह लंबी दूरी तक उड़ने में सक्षम होता है। भंवरे प्राय: छोटे समूहों में रहते हैं और ज़्यादातर फूलों के इर्द-गिर्द अपना समय बिताते हैं। इनके घोंसले जमीन के नीचे या पेड़ों में होते हैं। भंवरे अपने मधुर गीतों से वातावरण में संगीतमय ध्वनि पैदा करते हैं। हिंदी साहित्य में भंवरा एक महत्वपूर्ण प्रतीक के रूप में देखा जाता है। इसे प्रेम, वफादारी, और स्वच्छंदता का प्रतीक माना जाता है। भंवरे की तुलना अक्सर प्रेमी से की जाती है, जो अपनी प्रिय की ओर आकर्षित होता है। प्रसिद्ध कवि कालिदास से लेकर आधुनिक कवियों तक भंवरे का उल्लेख ...

काकड़ीघाट : पर्वतों की गोद में रचनात्मकता और आत्मीयता की यात्रा

उत्तराखंड के सुरम्य पहाड़ों के बीच, अल्मोड़ा जिले की सीमाओं पर स्थित एक छोटा सा गाँव काकड़ीघाट । यहाँ की शांत वादियों और प्रवाहित नदियों के साथ स्वामी विवेकानंद का ध्यान स्थल, मानो इस जगह को एक आध्यात्मिक शक्ति से जोड़ता है । स्थानीय लोगों का मानना है कि विवेकानंद जी ने इस स्थान पर आकार कुछ समय ध्यान किया था । इस आस्था के चलते दूर-दूर से उनके अनुयायी विवेकानंद जी के एहसास को महसूस करने भी यहाँ आते हैं । तो इसी काकड़ीघाट में हमने एक अनोखी यात्रा का अनुभव किया । यह यात्रा केवल स्थल भ्रमण नहीं थी, बल्कि रचनात्मकता, आत्मीयता और शिक्षा के क्षेत्र में नवीन दृष्टिकोण को बल देने का प्रयास भी थी । हम कुछ मित्रों – रविपाल, राजकुमार, सैफ असलम, विकास, मोहित और मैं – ने इस यात्रा का प्लान किया और हमारे आमंत्रण पर मित्र महेश पुनेठा जी भी पिथौरागढ़ से काँकड़ी आकार हमारी यात्रा के साथी बने । यहाँ तक कि हमारे अनुरोध पर उन्होंने ही इस यात्रा का नेतृत्व भी किया । आपकी उपस्थिति ने हमारे बीच अनेकानेक विषयों को सार्थक चर्चाओं का माध्यम बनाया । आपकी ‘झोला पुस्तकालय’ की पहल ने हम सबको बहुत प्रभावित किया । उनकी ...

मेरे गांव जगतियापुर की खूबसूरत सुबह और फोटोग्राफी

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उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले में स्थित मेरा गांव, जगतियापुर, अपनी सादगी और प्राकृतिक सुंदरता के लिए मुझे हमेशा से आकर्षित करता है। यहां की ताज़ी और सजीव सुबहें, खेतों में फैली हरियाली, और चारों ओर फैली शांति मन को मोह लेती हैं। जैसे ही मैं अपने गांव में कदम रखता हूँ, गाँव की एक नई सुबह अपने रंग-बिरंगे दृश्य लेकर मेरे सामने प्रस्तुत होती है। गाँव में सुबह का अनुभव शहरी जीवन से पूरी तरह भिन्न है। सूरज की पहली किरण जब धरती को स्पर्श करती है, तो ऐसा लगता है मानो धरा ने स्वर्ण का चादर ओढ़ लिया हो। हल्की ठंडी हवाओं के साथ पक्षियों की चहचहाहट एक स्वाभाविक संगीत प्रस्तुत करती है। दूर-दूर तक फैले खेत, जिनमें हरे-भरे पौधे और सजीव फसलें लहलहाती हैं, सुबह की नमी में चमक उठती हैं। बरसात के मौसम में गाँव की सूरत और भी सुंदर हो जाती है। मैं अपने कैमरे के साथ खेतों में जाता हूँ, जहाँ चारों तरफ धान, गन्ना, और उरद की फसलें लहरा रही हैं। बरसात के महीनों में फसलों की हरियाली देखने लायक होती है। धान के पौधे अपनी हल्की हवा में झूमते हुए ऐसा प्रतीत होते हैं जैसे प्रकृति ने इन्हें नृत्य का आदेश दिया हो। गन्न...

अहिच्छत्र : इतिहास की छत पर वर्तमान की चहलकदमी

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अहिच्छत्र की यात्रा का अनुभव मेरे जीवन की उन स्मृतियों में से एक है, जो इतिहास की परतों को छूने का अवसर प्रदान करता है। बरेली के आंवला स्टेशन से उत्तर दिशा में कोई 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह स्थल, सदियों पुराने वैभव, ऐश्वर्य और उल्लास की कहानियां सुनाता है। जब मैं वहां पहुंचा, तो पहले पहल जो दृष्टिगोचर हुआ, वह थे खंडहरों के अवशेष—मानो एक युग जो अब इतिहास की किताबों तक सिमट चुका है, अपनी कहानी कहने को व्याकुल हो। अहिच्छत्र, जो महाभारतकालीन पांचाल राज्य की राजधानी था, का नाम सुनते ही मस्तिष्क में द्रौपदी का चित्र उभर आता है। मान्यता है कि द्रौपदी यहीं पैदा हुई थीं, और इसी भूमि ने उनके गौरवशाली जीवन का आरंभ देखा। यहां के किले, जो आज जर्जर स्थिति में हैं, कभी महाभारत के नायकों के कदमों की गवाह रहे होंगे। मुझे बताया गया कि यह किला पांडवकालीन किला कहलाता है, क्योंकि कौरवों और पांडवों का यहां अधिकार था। जैन अनुयायियों के लिए अहिच्छत्र विशेष महत्व रखता है। यहां 23वें जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। अहिच्छत्र का यह पहलू मेरे लिए एक नया और अद्वितीय अन...

चुप्पियों में खोते संवाद : माती की स्मृतियों से जूझता मन

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एक अजीब सी संवादहीनता बढ़ती जा रही है – घर में, परिवार में, गाँव में, समाज में ... और सबसे अधिक खुद में ... कहीं हुईं सामूहिक मौतों से उत्पन्न भयाक्रांत सन्नाटे–सी । यह शून्यता वर्षों पहले गांव में आई एक महामारी के समय महसूस हुई थी । आज हर एक जगह वही दिखती है । बेहद कोलाहल पूर्ण वातावरण में अवसाद-सी । कबीर पागल था । खाने और सोने वाली दुनिया को सुखिया कह गया । उसने रोने और जागने को खुद के लिए चुना । चुप्पियों ने यहीं से उभरना शुरू किया था ।    आज गोरू घर नहीं लौट रहे हैं । बचे ही नहीं । मुझे मेरे नाना याद आते हैं । सौ-एक जानवरों के पीछे, कंधे पर लाठी, शरीर पर उमंग मिश्रित श्रमबिन्दु और मुँह से झरता संवादों का सैलाब लेकर नदिया से शाम को वापस घर आ रहे हैं । मैं आज भी इस बिंब को दूर खड़ा निहार रहा हूँ ।  आसमान में एकाध पखेरू भर हैं वापस जाने भर को । वापस आने के लिए इंतजार का कोई आलंबन भी तो होना चाहिए । सब कुछ शांत है । सही कहा ‘लौटना मुश्किल होता है ।’ अंधेरा धीरे-धीरे घिर रहा है । वैसे तो बिलकुल नहीं जैसे निराला की ‘संध्या सुंदरी’ ‘परी सी उतरती थी धीरे धीरे धीरे ।’ यह एक भय ह...

खाऊंगा तो हाथी ही

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एक बार की बात है । शब्द थे अपनी दादी के पास... और दादी बना रही थीं पूड़ी ।  बुआ ने एक पूड़ी शब्द की ओर बढ़ाई और बोलीं – खाओ...   शब्द : मैं नहीं खाऊँगा... बुआ : क्यों नहीं खाओगे...  शब्द : मुझे भूख नहीं लगी है...  बुआ : अच्छा चिड़िया बना देती हूँ... खाओगे...  शब्द : चिड़िया क्या खाई जाती है...  बुआ : सचमुच की थोड़े न... आटे की...  शब्द : आटे की क्या कोई चिड़िया होती है...   बुआ : हाँ... होती है... खाने वाली होती है...  शब्द : तो क्या हाथी भी होता है खाने वाला... बुआ : हाथी भी होता है खाने वाला...  शब्द : तो हाथी बना दो... वो खाऊँगा...  बुआ : हाथी मैं नहीं बना पाती हूँ...  शब्द : तो चिड़िया कैसे बना लेती हो...  बुआ : चिड़िया बना लेती हूँ...  शब्द : तो हाथी तो बनाना ही पड़ेगा... वरना कुछ नहीं खाऊँगा...  अब बुआ से लेकर दादी, मम्मी सब पड़ गए चक्कर में । शब्द ने ठान ली जिद । खाऊँगा तो हाथी ही खाऊँगा ।    सबने कोशिश की बनाने की लेकिन बना नहीं पा रहा था कोई भी ।   किसी से पूछ नहीं बनती तो किसी से...

भूख लगी हम चब्बइं का

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शब्द जैसे-जैसे बड़े होते जा रहे हैं, उन्हें कहानियाँ सुनने की लत-सी लगने लगी है । मम्मा-पापा तो कभी-कभी इस बात पर डाँट तक देते हैं । फिर क्या – बैठ जाते हैं मुँह फुलाकर ।  इस बार सर्दियों की छुट्टी में जब गाँव गए तो पकड़ लिया दादी को । ...और दादी के पास तो मानो कहानियों का खजाना ही है । शब्द की तो जैसे लाटरी ही लग गई ।  शाम हुई नहीं कि शब्द जा घुसे दादी की रजाई में । एक मीठा चुम्मा इधर से... एक मीठा चुम्मा उधर से... बस यही बहुत होता कहानी सुनने के लिए...  आज दादी के पिटारे से एक चिड़िया की कहानी निकल पड़ी ।  दादी ने कहानी सुनानी शुरू की -     ‘बात है बहुत पुरानी...   शब्द : कितनी पुरानी ?  शब्द के प्रश्न तो मानो शांत बैठ ही नहीं सकते हैं ।  दादी झल्ला पड़ीं – हमें नहीं पता... सीधे-साधे कहानी सुननी हो तो सुनो... नहीं तो हम नहीं सुना पाएंगे... हाँ नहीं तो क्या...  शब्द : अच्छा-अच्छा सुनाओ-सुनाओ...  दादी : तो बात है बहुत पुरानी । एक थी चिड़िया । नाम था उसका चिर्रु...  एक दिन की बात है । चिर्रु कहीं से एक दाना लेकर ...