चुप्पियों में खोते संवाद : माती की स्मृतियों से जूझता मन
एक अजीब सी संवादहीनता बढ़ती जा रही है – घर में, परिवार में, गाँव में, समाज में ... और सबसे अधिक खुद में ... कहीं हुईं सामूहिक मौतों से उत्पन्न भयाक्रांत सन्नाटे–सी । यह शून्यता वर्षों पहले गांव में आई एक महामारी के समय महसूस हुई थी । आज हर एक जगह वही दिखती है । बेहद कोलाहल पूर्ण वातावरण में अवसाद-सी । कबीर पागल था । खाने और सोने वाली दुनिया को सुखिया कह गया । उसने रोने और जागने को खुद के लिए चुना । चुप्पियों ने यहीं से उभरना शुरू किया था । आज गोरू घर नहीं लौट रहे हैं । बचे ही नहीं । मुझे मेरे नाना याद आते हैं । सौ-एक जानवरों के पीछे, कंधे पर लाठी, शरीर पर उमंग मिश्रित श्रमबिन्दु और मुँह से झरता संवादों का सैलाब लेकर नदिया से शाम को वापस घर आ रहे हैं । मैं आज भी इस बिंब को दूर खड़ा निहार रहा हूँ । आसमान में एकाध पखेरू भर हैं वापस जाने भर को । वापस आने के लिए इंतजार का कोई आलंबन भी तो होना चाहिए । सब कुछ शांत है । सही कहा ‘लौटना मुश्किल होता है ।’ अंधेरा धीरे-धीरे घिर रहा है । वैसे तो बिलकुल नहीं जैसे निराला की ‘संध्या सुंदरी’ ‘परी सी उतरती थी धीरे धीरे धीरे ।’ यह एक भय ह...