आंचलिक उपन्यास की अवधारणा और मैला आंचल


आंचलिक उपन्यास की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए डा० रामदरश मिश्र कहते हैं कि –“जैसे नई कविता ने सच्चाई से भोगे हुए, अनुभव की भट्टी में तपे हुए पलों को व्यंजित करने में ही कविता की सुन्दरता देखी, वैसे ही उपन्यासों के क्षेत्र में आंचलिक उपन्यासों ने अनुभवहीन सामान्य या विराट के पीछे न दौड़कर अनुभव की सीमा में आने वाले अंचल-विशेष को उपन्यास का क्षेत्र बनाया । आंचलिक उपन्यासकार जनपद-विशेष के बीच जिया होता है या कम से कम समीपी दृष्टा होता है । वह विश्वास के साथ वहां के पात्रों, वहां की समस्याओं, वहां के संबंद्धों, वहां के प्राकृतिक और सामाजिक परिवेश के समग्र रूपों, परंपराओं और प्रगतिओं को अंकित कर सकता है क्योंकि उसने उसे अनुभूति में उतारा है । आंचलिक उपन्यास लिखना मानों हृदय में किसी प्रदेश की कसमसाती हुई जीवनानुभूति को वाणी देने का अनिवार्य प्रयास है । आंचलिक कथाकार को युग के जटिल जीवन बोध का नहीं, इसीलिए वह आज भी पिछड़ हुए जनपदों के सरल, निश्छल जीवन की ओर भागने में सुगमता अनुभव करता है, ऐसा कहना असत्य होगा ।”
          वस्तुत: हिन्दी उपन्यास के इतिहास में ‘आंचलिकता की अवधारणा’ सन्‍ १९५४ ई० में प्रकाशित ‘मैला आंचल’ के साथ ही बननी आरम्भ हुई । हालांकि १९५३ ई० में यह बिहार के एक स्थानीय प्रकाशन से छ्प चुका था । यहीं से आंचलिकता की चर्चा का आरम्भ हुआ । ‘आंचलिक पद का प्रयोग भी संभवत: पहले-पहल ‘रेणु’ ने ही किया –“यह है मैला आंचल, एक आंचलिक उपन्यास । कथांचल है पूर्णिया । पूर्णिया बिहार राज्य का एक जिला । ... मैंने इसके एक हिस्से के एक ही गांव को पिछ्ड़े गांवों का प्रतीक मानकर इस किताब का कथाक्षेत्र बनाया है ।”
उक्त वक्तव्य में दो बिन्दु –‘कथाक्षेत्र का पिछ्ड़ापन’ तथा ‘गांव से उसका अनिवार्य संबद्ध होना’– विशेषता प्राप्त करते हैं ।
जहां तक गांव से अनिवार्य रूप से संबद्ध होने की बात है, तो भारत मूलत: गांवों का ही देश है । इसीलिए हिन्दी के तमाम कथालेखकों की कथा का आधार ‘गांव’ रहे हैं । अत: इस बिन्दु के आधार पर किसी उपन्यास को ‘आंचलिकता’ की संज्ञा नहीं दी जा सकती । रही बात ‘कथाक्षेत्र के पिछड़ेपन’ की तो वह भी उक्त बिन्दु से ही संबद्ध है ।
वास्तव में देखा जाए तो सोवियत रूस के अनुकरण पर भारत में भी पंचवर्षीय योजनाएं शुरू हुईं । नवनिर्माण और विकास की प्रक्रिया में छोटे-छोटे अंचलों की ओर ध्यान दिया जाना स्वभाविक था । सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया में छोटे-छोटे अपरिचित अंचलों की खोज ही आंचलिकता का मूल उत्स था ।
१९वीं सदी के उत्तरार्द्ध में जब अमेरिकी उपन्यासकारों – ‘बिटहार्ट’ और ‘हैरेट बीयर स्टो’ ने सुदूर अमेरिकी अंचलों को ध्यान में रखकर उपन्यास लिखे तो उनका विशेष आग्रह इस पर था कि अंचल के व्यक्तित्व पर लेखक की मध्यवर्गीय सोच नहीं हावी होनी चाहिए । अंचल का वैशिष्टय पात्रों के माध्यम से, उनके जीवन-व्यवहार के माध्यम से उभर कर आना चाहिए – लेखक के ‘विचार’ की भूमिका वहां नगण्य रहनी चाहिए ।(जैसा कि नागार्जुन के उपन्यासों में है ) इस आधार पर देखा जाए तो वास्तविक आंचलिक उपन्यास उड़िया लेखक गोपीनाथ मोहंती का ‘अंमृत संतान’ है ।
अंत में पंचवर्षीय योजनाओं की विफलता और सरकारी योजनाओं – घोषणाओं के खोखलेपन ने मोहभंग कर दिया । इसलिए आंचलिकता के प्रति यह ज्यादा समय तक नहीं बना रह सका । स्वयं ‘रेणु’ के वहां यह चार वर्ष से ज्यादी नहीं रहा – ‘मैला आंचल’ से(’५३, प्रथम प्रकाशन) से ‘परिती परिकथा’(’५७) । आंचलिकता के प्रति यह मोहभंग यहां तक बढ़ा कि शिवप्रसाद सिंह और शानी को इस धारा के अंतर्गत रखकर मूल्यांकन की कोशिश की गई तो इन्होंने इसका विरोध किया । खैर !
भले ही पंचवर्षीय योजनाओं में देश की तमाम समस्याओं पर ध्यान दिया गया हो, लेकिन साहित्यकारों की दृष्टि में सुदूर ग्रामीण अंचलों तक उनका लाभ नहीं पहुचा, जिस पर दृष्टिपात करते हुए साहित्यकारों ने उन सुदूर पिछड़े अंचलों की तमाम छोटी-छोटी समस्याओं पर ध्यान देकर योजनाओं की विफलता सिद्ध की ।
इसके अतिरिक्त ‘आंचलिकता की अवधारणा’ विकसित होने के दो मुख्य कारण और भी थे ‘गांधी का गांव के प्रति लगाव’, जिससे साहित्यकार भी प्रेरित हुए तथा ‘भोगे हुए यथार्थ का वर्णन ।’
स्वतंत्रता से पहले से लेकर काफी बाद तक हिन्दी-साहित्य पर महात्मा गांधी का काफी प्रभाव रहा । प्रेमचंद से लेकर ‘रेणु’ तक तमाम साहित्यकारों ने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ‘गांधीवाद’ को अपने साहित्य में प्रतिष्ठित किया । गांधी जी ने एक बार कहा था कि ‘हमारा वास्तविक भारत गांवों मे बसता है ।’ गांधी के इस नारे से भी विकसित हो रही आंचलिकता की अवधारणा को काफी बल मिला ।
‘आंचलिकता की अवधारणा’ बनने का दूसरा मुख्य कारण ‘भोगा हुआ यथार्थ’ कहने की ललक तथा तमाम साहित्यकारों का ग्रामीण परिवेश से आना भी था ।
सन्‍ १९५० के आस-पास ‘नई कहानी’ की प्रतिष्ठा करते हुए कमलेश्वर, मोहन राकेश तथा राजेन्द्र यादव इत्यादि प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने साहित्य में ‘भोगे हुए यथार्थ’ का नारा प्रतिष्ठित किया । इससे यह हुआ कि जो साहित्यकार कस्बाई, महानगरीय आदि परिवेश से जुड़े थे, उन्होंने साहित्य में उस परिवेश की प्रतिष्ठा की और जो साहित्यकार(प्रेमचंद, नागार्जुन, रेणु आदि) ग्रामीण परिवेश से संबद्ध थे, उन्होंने साहित्य में ग्रामीण परिवेश की स्थापना की । इन्हीं मे से जो साहित्यकार सुदूर आंचलिक अथवा अत्यंत पिछ्ड़े तबके से आए थे, उन्होंने साहित्य में वहां के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश की प्रतिष्ठा की; जिसे ‘रेणु’ ने ‘मैला आंचल’ में  ‘आंचलिकता’ की एक  व्यापक  अवधारणा के रूप में  स्थापित  करने का  प्रयास किया ।
अब प्रश्न उठता है कि ‘आंचलिक उपन्यास कहते किसे हैं ?’  डा० लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय के अनुसार –“जब उपन्यासकार किसी किसी अंचल, गांव, कस्बे या मुहल्ले को परिवेश बनाकर वहां के लोगों के आचार-व्यवहार, जीवन-पद्यति, संस्कृति, लोकभाषा, धर्म एवं दृष्टिकोण का सूक्ष्म वर्णन करता है तो वह आंचलिक उपन्यास है ।”  और खुद फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ कहते हैं –“इन उपन्यासों में किसी अंचल का चित्रण होने के बावजूद व्यापक संदर्भों के जोड़ने का प्रयास रहता है । ... मैंने इसके एक हिस्से के एक ही गांव को पिछड़े गांवों का प्रतीक मानकर उपन्यास-कथा का क्षेत्र बनाया है ।”
आंचलिक उपन्यास को लेकर एक आक्षेप अक्सर लगाया जाता है – स्थानीय रंगत का ।
अगर देखा जाए तो स्थानीय रंगत तो प्राय: सभी उपन्यासों में होती है । प्रेमचंद ने भी ग्राम कथाएं ली हैं । स्थानीय रंगत उन्होंने भी दी है, वातावरण सृजन और सजीवता उत्पन्न करने हेतु । पर जिन उपन्यासों को ‘आंचलिक उपन्यास’ कहा जाता है, उनमें अंचल का समग्र जीवन उपस्थित रहता है । एक तरह से अंचल ही उपन्यास का नायक होता है । ऐसे उपन्यासों में गांव की धरती, खेत-खलिहान, नदी-नाले, डबरे, पशु-पक्षी, हल-बैल, भाषा, गीत, त्योहार आदि को इनके बीच रहने वाले व्यक्तियों के साथ समवेत रूप में वाणी दी जाती है । गोपालराय लिखते हैं –“अंचल का व्यक्तित्व, उसकी संस्कृति अर्थात वहां की परंपराओं, विश्वासों, रहन-सहन के तौर-तरीकों, रीति-रिवाजों, किवदंतियों, लोकगीतों, लोककथाओं आदि से बनता है । आंचलिक जीवन का एक सुपरिचित यथार्थ यह है कि ग्रामीणों के समस्त संस्कार, काम करने का एक-एक क्षण, पर्व, उत्सव, कर्मकांड, गीत-नृत्य आदि से जुड़े होते हैं ।”
वास्तव में आंचलिक उपन्यासों की गति एक नहीं, कई दिशाओं में होती है । कभी साथ ही साथ, कभी अलग-अलल; इसमें अनेक पात्र होते हैं और सभी पात्र अपना विशेष महत्व रखते हैं, बल्कि यों कहें कि मुख्य पात्र  अर्थात नायक अंचल ही होता है । इस कारण अंचल की धार्मिक, संस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक पक्षों का चित्रण अभीष्ट रहता है । अत: कथा में एक प्रकार का बिखराव रहता है । इसी कारण इन उपन्यासों में कथानक और पात्रों का बिखराव दिखता है । उनमें एकसूत्रता और एकदिशमिता नहीं दिखती; जबकि नागार्जुन के उपन्यासों में यह बिखराव नहीं दिखता; अत: उनके उपन्यासों को आंचलिक नहीं कहा जा सकता ।
‘मैला आंचल’ ‘रेणु’ रचित एक जटिल कथावस्तु वाला उपन्यास है, जिसके माध्यम से पूर्णिया जिले के मेरीगंज गांव की सभ्यता, संस्कृति, राजनीतिक गतिविधियों, आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश का यथार्थ अंकन किया गया है ।
वस्तु-संगठन की दृष्टि से यह उपन्यास अब तक के उपन्यासों से थोड़ा भिन्न है । यह भिन्नता ‘मैला आंचल’ की या अन्य संस्लिष्ट आंचलिक उपन्यासों की अनिवार्यता है । कहा जाता है कि वस्तु-संगठन की दृष्टि से ‘मैला आंचल’ में बिखराव है, अर्थात उसमें अनेक बिखरी हुई घटनाओं, अनेक बिखरे हुए पात्र, इस तरह एक-दूसरे के विकास में अपरिहार्य रूप से योग दिए बिना आते हैं और अपनी-अपनी जगह पर इस तरह से स्थिर हो जाते हैं कि उपन्यास में फिर एक सूत्र में नहीं संघटित नहीं हो पाते । वास्तव में ऐसी आपत्ति इसलिए पैदा होती है कि हम आंचलिक उपन्यासों के अलग-अलग स्वरूप को परख नहीं पाते ।
‘मैला आंचल’ में कोई भी एक कथावस्तु नहीं है । अनेक कथासूत्रों का मिश्रण ही इसे पूर्ण बनाता है । एक ओर डा० प्रशांत और कमला का प्रसंग है तो दूसरी ओर तहसीलदार, यादवटोली, राजपूतटोली और शेष टोलियों के लोगों की कथा है । बालदेव, कालीचरन, बावनदास तथा मठ के सेवादास, रामदास, लक्ष्मी के प्रसंग इसे पूर्णता प्रदान करते हैं । वस्तुत: इसमें इतने प्रसंग और इतने पात्र हैं कि याद नहीं रहते । ये सीधे-सीधे नहीं आते, एक-दूसरे से कटते हुए आते हैं, एक-दूसरे को काटते हुए आते हैं और आपस में उलझे हुए आते हैं । इस प्रकार प्रत्येक सर्ग कुछ चुनी हुई घटनाओं या चरित्र-विशेषताओं की सीधी रेखाओं से खिंचता हुआ नहीं आता, बल्कि अनेक अनुस्यूत जटिल और आड़ी-तिरछी रेखाओं से अंकित हुआ उभरता है ।
इसी प्रकार इसमें प्रासंगिक तथा अन्तर्कथाओं की बहुलता भी कथावस्तु को जटिल बना देती है ।
वस्तुत: ‘मैला आंचल’ के अध्ययन के समय हमारा ध्यान उसके वस्तु-विन्यास के कुछ बिन्दुओं पर केन्द्रित  होता है –
१.मुख्य कथासूत्रों की परस्पर एकसूत्रता ।
२.प्रासंगिक कथासूत्रों की मुख्य कथासूत्रों से संबंद्धता ।
३.कथांशों का विस्तार-भार ।
४.संपूर्ण कथांशों की एकान्विति ।
‘मैला आंचल’ में कोई भी एक प्रसंग या कथा, मूलकथा और अन्य कथाएं उसकी पूरक नहीं हैं । अपितु नाना कथाओं के समन्वित रूप से एक संश्लिष्ट कथा का निर्माण होता है, जो मेरीगंज के बहुआयामी जीवन का प्राय: समग्र चित्र प्रस्तुत करता है । बलदेव और बावनदास के माध्यम से कांग्रेसी तथा कालीचरन आदि द्वारा सोशलिष्ट पार्टी की नीतियों का पर्दाफास किया गया है । तह्सीलदार, खेलावन यादव और रामकृपालसिंह के माध्यम से जातिगत टोलीबंदी का उद्‍घाटन किया गया है । इसी प्रकार रामदास, सेवादास के माध्यम से मठों में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा  डाक्टर के माध्यम से गांवों के अंधविश्वासों को व्यक्त किया गया है । यह सभी कथाएं आपस में पूर्ण होकर मेरीगंज के जीवन-यथार्थ को बिम्बित करते हैं ।  
इसी प्रकार प्रारम्भिक कथासूत्र कहीं-कहीं मुख्य कथासूत्रों से असंबद्ध दीखते हैं ; पर यह आंचलिक उपन्यासों की अनिवार्य मांग है, जो मुख्य कथासूत्रों से संबद्ध या असंबद्ध होकर उसे पूर्ण करते हैं । संपूर्ण कथांशों की एकान्विति में दिखाई पड़ने वाली बाह्य-विश्रृंखला ही वास्तव में आंचलिक उपन्यासों के कथांशों की श्रृंखला-बद्धता है । कथांशों के विस्तारभार से अभिप्राय है मुख्य, प्रासंगिक या गौड़ कथाओं की विस्तारण उपयुक्तता । बाह्य दृष्टि से देखने पर ‘मैला आंचल’ में घटनाओं का अनावश्यक विस्तार दिखेगा, पर वास्तव में वह उपन्यास कथा के महत्वपूर्ण अंग हैं ।
आज़ादी के फलस्वरूप गांवों में जो राजनैतिक परिवर्तन आए हैं –प्रगतिगामी या प्रतिगामी- इनका सुन्दर निरूपण ‘मैला आंचल’ में रेणु ने किया है । रेणु ने तत्कालीन राजनैतिक दलों के आपसी टकराव और अतिवादिताओं को एक गांव की मर्यादा के भीतर समेटकर बड़ी ही मार्मिकता से चित्रित किया है । व्यंग्य की शक्ति ने एक ओर लेखक को किसी दल का पक्षधर होने से बचा लिया है तो दूसरी ओर प्रवाह में बड़ी तीव्रता भर दी है । ‘रेणु’ ने पूरी तटस्थता के साथ कांग्रेस, सोशलिष्ट, कम्यूनिष्ट और आर. एस. एस. की गतिविधियों का उल्लेख किया है । अगर ‘रेणु’ को किसी पक्ष में सहानुभूतिपूर्ण कहा जा सकता है तो वह है –डा० प्रशांत । क्योंकि बालदेव अंतत: क्षीण हो जाता है, कालीचरन चलित्तर कर्मकार की शरण लेता है । जबकि ‘डाक्टर’ के पीछे एक निश्चित विचार-चिन्तन और मानवतावादी भावना है ।
बालदेव के माध्यम से एक कर्मठ, सच्चे और भावुक कांग्रेसी कार्यकर्ता का चरित्र उभरा है, वहीं विश्वनाथप्रसाद का कांग्रेसी हो जाना अवसरवादी राजनीतिज्ञों की पोल खोलता है । कालीचरन, वासुदेव आदि के माध्यम से सोश्लिष्ट पार्टी की गतिविधियों की ओर संकेत किया है । यद्यपि इनके माध्यम से गांव में काफी कुछ न्याय होता है, पर अपनी निहित कमजोरियों और अधकचरेपन के कारण इनका अंत बड़ा त्रासद होता है । राजपूत टोली के लोग अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ’ को प्रश्रय देते हैं । डाक्टर कम्यूनिस्ट पार्टी का कार्यकर्ता संदेष्टित किया जाता है ।
शहरों से परिचालित होने वाली परमुखापेक्षी गांव की राजनीति किस प्रकार अविवेकपूर्ण ढंग से चलती है और किस प्रकार शहरों में बैठे हुए विभिन्न दलों के राजनेता उनका उपयोग करके अपना उल्लू सीधा करते हैं, ये सारी बातें बहुत ही जीवन्त और संश्लिष्ट रूप में उभरी हैं । पर यह निश्चित है कि भले रूप में हों या बुरे रूप में, गांवों में राजनीति का प्रवेश हुआ अवश्य है । ‘रेणु’ ने इस सत्य को बड़ी गहराई से परखा है, इस समस्त राजनीतिक मूल्यों के बिखराव और अराजकता के बीच भी लेखक की दृष्टि उसके सुन्दर पक्ष को अदृष्ट नहीं छोंड़ देती है । बालदेव की परिणति बड़ी ही निर्जीव और परिपाटीवादी होती है । कालीचरन, वासुदेव अपनी-अपनी सीमित परिधि में घिरे हुए, अपनी-अपनी आग लिए हुए, डकैती और खून के केस से संबद्ध करार दिए जाकर बुझा दिए जाते हैं । आर. एस. एस. की परिणति बहुत ही साम्प्रदायिक होती है ।
इन सबके बीच बावनदास गांव की अपूर्व निष्ठा, त्याग और ईमानदारी लेकर अपना बलिदान देता है और राजनीति को एक उच्च मूल्य प्रदान करता है । लेकिन विडम्बना या सामाजिक परिपेक्ष से जोड़कर लेखक इस घटना को एक अजब दर्द से भर देता है । वास्तव में ‘मैला आंचल’ में बावनदास की निर्मम हत्या कांग्रेस के साथ-साथ तमाम राजनैतिक दलों की सकारात्मक संभावनाओं की भ्रूण हत्या थी । पाकिस्तानी सीमा में माल पहुंचाने वाले दुलारचंद कापरा से बैलगाड़ियों की कतार के सामने खड़ा बावनदास कहता है –“आइए सामने । पास कराइए गाड़ी । आप भी कांग्रेस के मेम्बर हैं और हम भी । खाता खुला है । अपना-अपना हिसाब-किताब मिलाइए ।”दो आजाद देशों की, हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की ईमानदारी को, इंशानियत को बस दो डग में ही माप लेने वाला बावनदास जैसा चरित्र हिन्दी कथा-साहित्य में फिर कभी दिखाई नहीं पड़ा ।
उपन्यास की भूमिका में ‘रेणु’ ने लिखा है –“इसमें फूल भी हैं, शूल भी हैं, ... सुन्दरता भी है, कुरूपता भी – मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया ।”
स्पष्ट है कि ‘रेणु’ ने गांवों का रोमैंटिक चित्रण जरूर किया है पर गांवों की बिडंबनाएं उनकी दृष्टि से ओझल नहीं हो सकी हैं । यद्यपि यह चित्रण ‘गोदान’ जैसी त्रासदी नहीं उत्पन्न करता । ‘रेणु’ के चित्रण पर एक रोमैंटिक पर्दा पड़ा दिखाई देता है, फिर भी ‘मैला आंचल’ में गांवों की आर्थिक स्थिति का सजीव चित्रण है । तहसीलदार ‘विसनाथप्रसाद’ के पास तमाम ग्रामवासियों की ज़मीन रेहन है । गांव में इतनी ज़मीन है पर अधिकतर किसान भूमिहीन हैं । बड़े किसानों ने सादे कागज़ पर उनके ‘अंगूठे की टीप’ ले रखी है । चौगुनी ब्याज से किसान त्रस्त हैं । संथालों से हुई लड़ाई का लाभ उठाकर तहसीलदार रामखेलावन व रामकिरपाल को भी सड़क पर लाकर छोड़ता है ।
डा० प्रशांत द्वारा ममता को लिखे गए पत्रों में गांव का आर्थिक परिदृश्य बड़ी मार्मिकता से उभरा है । डाक्टर आता है मलेरिया, कालाआजार जैसी महामारियों पर शोध करने, पर उसे गरीबी ही गांवों का सबसे बड़ा रोग दिखता है । इस रोग के सबसे बड़े कीटाणु हैं – गरीबी और जहालत । ‘एनोफिलीज़’ से ज्यादा खतरनाक, ‘सैंड्फ्लाई’ से ज़्यादा जहरीले । डाक्टर सोचता है –“वह क्या करेगा संजीवनी बूटी खोजकर ? भूख और बेबसी से छटपटाकर मरने से ज्यादा अच्छा है ‘मैंलेग्नेंट मलेरिया’ से बेहोश होकर मर जाना । तिल-तिल घुल-घुलकर मरने के लिए उन्हें जिलाना बहुत बड़ी क्रूरता होगी ।”
ये वाक्य गांव की गरीबी को बड़े त्रासद ढ़ंग से उभार देते हैं । लेखक का मन बार-बार इन परिस्थितियों से विद्रोह करता है –“आखिर वह कौन-सा कठोर विधान है, जिसने हज़ारों-हज़ार क्षुधितों को अनुशासन से बांध रखा है ।”
राजनीतिक-आर्थिक संदर्भों के अलावा ‘मैला आंचल’ में सामाजिक संदर्भ अपनी पूरी सजीवता के साथ उपस्थित हुआ । गांव की रीतियों-कुरीतियों, नीतियों-अनीतिओं, विश्वासो-अंधविश्वासों का संश्लिष्ट चित्रण है ‘मैला आंचल’ की कथा-वस्तु ।
अशिक्षित गांवों की सबसे बड़ी विशेषता है जातिगत गुटबंदियां । मेरीगज में भी राजपूतटोली, कायस्थटोली, यादवटोली आदि टोलियां हैं, जिनके मुखिया अपने स्वार्थों के कारण एक-दूसरे को लड़ाते रहते हैं । यहां की राजनीति भी जातिगत आधार पर चलती है । राजपूतटोली सनजोजक जी को शरण देते हैं तो तहसीलदार कांग्रेस को । यादवटोली का स्वार्थ सोश्लिष्ट से सधता है । यहां तक कि मानवता को ही अपनी जाति मानने वाला बालदेव भी अंत में यह सोचने पर विवश हो जाता है कि -“जाति बहुत बड़ी चीज है । ...जति की बात ऐसी है कि सभी बड़े-बड़े लीडर अपनी-अपनी जाति की पाटी में हैं ।”१०
जोतखी काका के रूप में गांवों के अंधविश्वासों का चित्रण है । गांव में अस्पताल होते देख सबसे ज्यादा चिंता जोतखी काका को ही होती है । वही अफवाह फैलाते हैं कि कुओं में लाल दवा डालकर डाक्टर हैज़ा फैला रहा है । उनके द्वारा फैलाए गए अंधविश्वासों की चरम परिणति है – मौसी (पारवती की मां) की हत्या हीरू लाठियों से पीट-पीटकर कर देता है ।
गांवों के नैतिक मानदंडों की शिथिलता की ओर भी संकेत है । फुलिया और सहदेव मिसिर आदि के प्रसंग इसके प्रणाम हैं । रमजूदास की स्त्री अक्सर उपन्यास में लोगों का कच्चा-चिट्ठा खोलती नज़र आती है । रमपियरिया का रामदास की दासी बन जाना  तथा लक्ष्मी व सेवादास का प्रसंग भी इसे पुष्ट करता है ।
‘मैला आंचल’ में सामाजिक कुरीतियां, अंधविश्वास भोले-भाले ग्रामीणों का किस प्रकार गला घोट रहे हैं, किस तरह जातिगत टोलीबंदियां गांवों के विकास में बाधा उत्पन्न कर रही हैं ; इसका गहन चित्रण है । डा० प्रशांत अपने गहन परिश्रम के बाद शोध से जो निष्कर्ष निकालता है वह हैं –‘गरीबी और जहालत’ । यही वह कीटाणु हैं जो गांव के गांव को खोखला किए हुए हैं । अशिक्षा और गरीबी का यह निष्कर्ष ; कहना ना होगा कि डाक्टर से अधिक लेखक का निष्कर्ष है ।
आंचलिक उपन्यासों में यदि नायक की बात की जाए तो इनमें अन्य उपन्यासों की भांति परंपरागत अर्थ में नायक नहीं होता है । बल्कि अंचल-विशेष तथा उसकी समस्याएं ही नायक होती हैं । अन्य पात्र और घटनाएं आदि अंचल के संश्लिष्ट जीवन-यथार्थ को चित्रित करने के निमित्त उपन्यास में योजित होते हैं । आंचलिक उपन्यासकार का उद्देश्य किसी पात्र या घटना को उभारना नहीं वरन्‍ सभी पात्रों तथा घटनाओं आदि के माध्यम से उस अंचल को उसकी संपूर्णता में उभारना रहता है ।
जिस प्रकार ‘बाबा बटेसरनाथ’ में बट बाबा ही मुख्य पात्र हैं और शिवप्रसाद मिश्र ‘रुद्र’ की ‘बहती गंगा’ में भी न तो कोई नायक है और न ही क्रमबद्ध कथा । इसी प्रकार ‘मैंला आंचल’ में कोई ऐसा पात्र नहीं है, जिसे परंपरागत अर्थों में नायक कहा जा सकता है, जो उपन्यास की मुख्य कथा-धारा में आदि से अंत तक बना रहता है । उसके जीवन में घटित घटनाओं के आधार पर ही कथानक का विकास किया जाता है । उसके द्वारा ही अन्य पात्र व घटनाएं प्रभावित रहती हैं । ‘मैला आंचल’ में उपर्युक्त अर्थों में किई भी पात्र नायक नहीं साबित होता है ; क्योंकि इस उपन्यास की न तो कोई क्रमबद्ध कथाधारा है और न ही कोई ऐसा कोई पात्र, जिसकी उपस्थिति-अनुपस्थिति से पूरी कथा पर प्रभाव पड़े ।
वास्तव में ‘मैला आंचल’ का नायक ‘मेरीगंज’ गांव ही है । इस गांव की आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक परिदृश्यों का चित्रण ही लेखक का अभीष्ट है । इसका वर्णन लेखक इस प्रकार करता है कि अंचल का जीवन-यथार्थ पूरे राष्ट्र का जीवन-यथार्थ हो उठता है ।
बहरहाल अगर ‘मैला आंचल’ के मुख्यपात्र का निर्धारण किया जाए तो चार पात्र हमारे सम्मुख आते हैं – डा० प्रशांत, बालदेव, कालीचरन और विश्वनाथ परसाद ।
डा० प्रशांत अज्ञात कुल का होनहार युवक । मानवजाति की सेवा की लगन के कारण एम.बी.बी.एस. होकर भी गांव जाकर मलेरिया, कालाआजार जैसी बीमारियों पर खोज करता है । अपार करुणा एवं दीन-भाव से ओत-प्रोत वह ममता को लिखे गए पत्रों में सारी वस्तु-स्थिति बताता है । ग्रामवासियों के तमाम अवोश्वासों के बावजूद वह उनकी सेवा करता है । नायक न होकर भी प्रशांत प्रमुखतम पात्र है । नायक की भांति वह कथा को विकास की ओर विकसित नहीं करता है । वह मूल कथानक की धुरी भी नहीं है, जिसके इर्द-गिर्द उपन्यास की सारी घटनाएं परिभ्रमण्शील हों । परन्तु –
१.उपन्यास का नामकरण उसी के उद्‍गारों के आधार पर है और लेखक की सर्वाधिक सहानुभूति इसी पात्र के पक्ष मेंदिखती है । (यद्यपि सभी पात्रों का चरित्रांकन लेखक ने सहानुभूतिपूर्ण ढ़ंग से किया है – जोतखी काका और तहसीलदार विसनाथपरसाद का भी ।)
२.अन्य प्रमुख पात्र यथा ; बालदेव, बावनदास को दिया गया वचन पूरा न कर पाने के कारके लक्ष्मी और अंतत: पाठकों की नजर से गिर जाता है । कालीचरन भी जेल से भागकर चलित्तर कर्मकार की शरण लेता है ।(संभवत: वह भी डकैत बन जाता है) सबकी ज़मीन लौटाकर विश्वनाथ भले ही पाठक की थोड़ी-बहुत सहानुभूति अर्जित करता है, पर प्रशांत के बराबर नहीं आ पाता ।
३.फल का भोक्ता होने के कारण भी उसे प्रमुख पात्र की श्रेणी में रखा जा सकता है ।
बालदेव से लेखक की विशेष सहानुभूति है । सरल स्वभाव, छल-छ्द्मों से दूर, गांधी के मार्ग पर चलने वाले बालदेव का लक्ष्मी के प्रति संयमशील स्वभाव पाठकों को विशेष आकृष्ट करता है । मठ के भंडारे में वह ही कार्यभार संभालता है । अस्पताल के निर्माण-कार्य में भी वह सहायक है । किंतु –
१.कपड़े की राशनिंग करते समय उसके नियम-कानून धरे रह जाते हैं ।
२.लक्ष्मी पर किया गया मिथ्यारोप भी पाठकों को कुपित करता है ।
३.बावनदास के प्रति की गई कृतघ्नता से  वह पाठकों की दृष्टि से गिर जाता है ।
४.यों भी अन्याय के खिलाफ उसका दब्बू (रामदास को महंत बनाने के समय आदि) पाठकों की सहानुभूति अर्जित नहीं कर पाता ।
आरम्भ में बालदेव को प्रभावशाली पात्र के रूप में अंकित किया गया है, पर बाद में धीरे-धीरे मेरीगंज में उसकी मान्यता घटती जाती है । यहां तक कि अंत समय तक बिलकुल ही नगण्य हो जाती है । लगता है इसके माध्यम से लेखक गांधीवादी कायदे-कानूनों की बदलते समय में अपर्याप्तता की ओर संकेत कर रहा है । यद्यपि रचनाकार की सहानुभूति उअसके साथ अवश्य है । (जैसा कि बालदेव के चरित्र-चित्रण से स्पष्ट है) यहां तक कि उसको पश्चाताप करते दिखाकर लेखक उसके ऊपर सहानुभूति का लेप लगा देता है । (लेखक कालीचरन के मार्ग को भी सही न मानकर डा० प्रशांत को सही मानता है क्योंकि  उसके पीछे एक व्यापक मानवीय चेतना है, व्यापक अनुचिंतन एवं विचारणा है ।) वास्तव में बालदेव आदि गांवों की विचारहीन राजनीति के प्रतीक हैं ।
कालीचरन ‘मैला आंचल’ का एक आद्यन्त प्रभावशाली चरित्र है । नवयुवकों, खेतिहरों, मज़दूरों, पीड़ितों का नेता और न्याय का सबल पोषक होने के कारण पाठक हृदय का भी नेता है । उसके हस्तक्षेप से रामदास महन्त बनता है । फुलिया का चुमौना खलासी से होता है । सोश्लिष्ट पार्टी के प्रति आस्थावान है । डकैती के झूठे केस में फंसने की मर्मान्तक व्यथा झेलता है । मंगला के प्रति आसक्ति उसका ब्रह्मचर्य भंग करती है । कुल मिलाकर अंतत: वह पाठकों की दृष्टि में गिर जाता है और होते न होते उपन्यास के नायक्त्व से वंचित हो जाता है ।
कालीचरन एक ओर तो गांव की परिधि में उभरने वाली राजनीति के अधकचरे और विकृत रूपों को उजागर करता है तो दूसरी ओर अपने निजी दुख-दर्दों से स्पंदित सजीव व्यक्तित्व भी है । शहरों से परिचालित होने वाली परमुखापेक्षी गांव की राजनीति किस प्रकार अविवेकपूर्ण ढ़ंग से चलती है और किस प्रकार शहरों में बैठे हुए विभिन्न दलों के राजनेता उनका दुरुपयोग करके अपना उल्लू सीधा करते हैं और मुसीबत के समय इनको पूछते भी नहीं हैं । ये सारी बातें कालीचरन, वासुदेव, बालदेव आदि के माध्यम से बहुत ही संश्लिष्ट रूप में उभरी हैं ।
तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद यद्यपि कथा में आद्यन्त विद्यमान रहता है, पर नायक के उपयुक्त नहीं अपितु शोषक है । वह मुखौटा पहनकर लूटते हैं । एक तरफ सीधे-सरल, दूसरी तरफ कानूनी दांव-पेंच का ज्ञाता, जिससे रामखेलावन आदि सभी की जमीन वह लिखा लेते हैं । संथालों से झगड़े में हरगौरी मारा जाता है । जमीन उनकी बचती है । मुकदमा रामकिरपाल और रामखेलावन पर चलता है ।
अंत में उनका हृदय परिवर्तन भी पाठकों की सहानुभूति नहीं खींच पाता । इस संबंद्ध में रामदरश मिश्र कहते हैं –“लगता है लेखक के मन में कहीं न कहीं आभिजात्य के प्रति मोह है । इसीलिए ‘मैला आंचल’ में सूक्ष्म रूप से सारे कुकृत्य करते हुए भी तहसीलदार के प्रति पाठकों के मन में कोई रोष नहीं पैदा होता ।”११  
प्राय: आंचलिक उपन्यासों में भाषा-प्रयोग को लेकर प्रश्न उठाया जाता है । ‘मैला आंचल’ भी इससे मुक्त नहीं है । ‘मैला आंचल’ में रेणु ने स्थानीय बोली का काफी पुट दिया है, जिससे नागरिक वातावरण में परिपोषित पाठक को समझने में सुविधा होती है । प्रश्न यह उठता है कि ‘रेणु’ ने यह केवल चमत्कार उत्पन्न करने के लिए किया है अथवा यह सर्जन की अनिवार्य मांग है । इसके पीछे दो कारण हो सकते हैं – एक तो मेरीगंज का परिवेश-चित्रण करने हेतु ; दूसरे वहां के जीवन की जीवंतता को उसकी मूल सहजता के साथ अंकित करने हेतु ।
वास्तव में स्थानीय बोलियों के शब्दों, मुहावरों, लोकोक्तियों में वहां का जीवन, वहां की संस्कृति, वहां का परिवेश व्यंजित होता है ,जिसे तथाकथित साहित्यिक भाषा में अनुवाद के द्वारा नहीं पाया जा सकता ; परन्तु कहीं-कहीं ‘रेणु’ सर्जनात्मक अनिवार्यता से निकलकर चमत्कार की कोटि में जाते दीखते हैं । ऐसा तब होता है जब लेखक अपनी ओर से दी गई टिप्पणियों में भी स्थानीय भाषा का प्रयोग करता है, पर ऐसा सर्वत्र नहीं है ।
कुल मिलाकर ‘मैला आंचल’ की भाषा सरल, व्यापक, व्यंजक एवं वातावरण  चित्रण से पूर्ण समर्थ है ।

: संदर्भ :
०१.हिन्दी उपन्यास : एक अंतर्यात्रा – रामदरश मिश्र
०२.भूमिका, मैला आंचल : फणीश्वरनाथ रेणु
०३.डा० लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय
०४.भूमिका, मैला आंचल : फणीश्वरनाथ रेणु
०५.हिन्दी उपन्यास का विकास – गोपालराय
०६.मैला आंचल : फणीश्वरनाथ रेणु
०७.भूमिका, मैला आंचल : फणीश्वरनाथ रेणु
०८.मैला आंचल : फणीश्वरनाथ रेणु
०९.वही
१०.वही
११.हिन्दी उपन्यास : एक अंतर्यात्रा – रामदरश मिश्र
सुनील कुमार अवस्थी
(शोध-छात्र)
हिन्दी-विभाग
त्रिपुरा विश्वविद्यालय
सूर्यमणिनगर, अगरतला-799022
मोबाइल : 09436982080
ई.मेल : manavsuneel@gmail.com

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